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संत वाणी

 कबीर वाणी


दुनिया कितनी बावरी जो पत्थर पूजा जाय ।

घर की चकिया कोई ना पूजे ,जिसका पिसा खाय ।।


ऐसा कोई ना मिले,  हम कौं  दे उपदेश ।

भौसागर में  डूबता , कर  गहि काढे केस ।।


दिनभर रोजा रहत है, राती हनत ह गाय ।

यह तो खून वह बंदगी , कैसे खुशी खुदाय ।।


बकरी पाती खाती है, ताको काढी खाल । 

जो नर बकरी खात है , तिनका  कौन हवाल ।।


चलती  को गाडी कहे, बने दूध को खोया ।

रंगी को  नारंगी कहे , दिया कबिरा रोया  ।।


आया था किस काम को , सोया चादर तान ।

सुरत संभाल ले  गाफिला  ,आपना आप पहचान ।।


मन गया तो जाने दे,  मत जाने दे शरीर ।

न खिंची कमान तो , कहा लगेगा तीर ।।



मधुर वचन है औषधी,  कटुक  वचन है तीर ।

श्रावण व्हय  संच  रै, साले सकल शरीर  ।।



बना बनाया मनवा , बिना बुद्धी के शूल ।

कहा  लाल ले किजिये  ,बिना बास का फुल ।।



बडा हुआ तो क्या हुआ , जैसे पेड खजूर ।

पंछी को  तो छाया नही , फल लागे  अति दूर ।।



ब्राह्मण गुरु जगत का , साधू का गुरु नाही । 

उरझि पुरझि  करी मरी , रहया चारीऊ  वेदामाही ।।



मन न रंगोयो  रंगोयो , जोगी कपरा ।

दाढीया बढाई जोगी , ले गई ले बकरा ।।



कबीर लोहा एक है, घडने  मे है फेर । 

ताहीका बख्तर  बना, ताहीक  समशेर  ।।


सुरत से किरत बडी,  बिना पंख उड जाय ।

सुरत तो जाती रही , किरत कभी न जाय ।।



जैसा अनजल खाईये, तैसा ही मन होय । 

जैसा पानी पिजिये , तैसी बानी होय ।।



दंत कहे जीभ को , हम है बत्तीस,  तू है अकेली माय ।

एक बार चबा जाय तो ,  फिर्यादी कहा जाय ।।



जीभ कहे दंत हो , तुम बत्तीस , मै हु अकेली माय ।

एक बार टेडी चलू , तो बत्तीसी गिर जाये ।।



माणूस का गुण ही  बडा , मांस न  आवे काज ।

हाडन होते आभरण , त्वचा न बाजन बाज ।।



सबको उत्पत्ती धरती , जीवन को प्रतिपाल  ।

धरती न जाने आप ,  गुण ऐसा गुरू विचार ।।



शीतलता के कारणै, नाग विलंबे आई ।

रोम रोम विष भरि रहया ,अमृत कहा समाई ।।



पीपर एक महा गभान , बाकी मर्म कोई नही जान ।

जर लंबाय कोई नही खाय,  ससम अक्षत बहु पीपरे जाये ।।



का मांगू कुछ न धीर न रहाई ,  देखत नैन चल्या जग जाई । इक लष पूत, सवा लष नाती, ता रावन घरी दिया ,न बाती।।

लंका सी कोट समंद  सी खाई, ता रावण का खबरी न पाई ।

आवत संग न जात संगाती, कहा भयो दारी बांधे हाथी।।

कहे कबीर अंत की बारी, हाथ  झाडी जैसे चले जुवारी  ।।



सांचे कोई न पती जई ,   झुठें जय पती खाय ।

गली गली  गोरस फिरे  , मदिरा बैठी बिकाय ।। 



 " पानी बिच मीन पियासी ,

    मोंही सून सून  आवे हांसी  "

    घर मे वस्तू नजर नही आवत 

    बन बन फिरत उदासी ।" 

    आत्मज्ञान बिना जग झूठा 

    क्या मथुरा क्या  काशी  ।।




माटी कहे कुम्हार से , तू क्यू रोंदे मोहे  ?" 

एक दिन ऐसा आयेगा , मैं  रौँदुँगी तोहे ।।



जल मे कुंभ ,  कुंभ में जल है ।

बाहर भीतर पानी पानी ।।

फूट  कुंभ जल ,जल ही समाना 

यह  तथ कहो ज्ञानी ।

आधी गगना , अंती गगना ,

मध्ये जग ना भाई  ।। 


कबीर यहू , जग अंधला , जैसी अंधी गाय ।

बछा था सो मरि गया ,  उभी चौम चटाई  ।।



मुआ  को क्या रोईये , जो अपने घर जाय । 

रोईयो बंदीतान को ,जो हाटे हाट बिकाय ।।


पाहन पूजे हरि मिले ,  सो मैं पुजू पहार ।

ताते यह चाकी भली , पीस खाय संसार ।। 



जत्रा मे फतरा  बिठाया ,  तीरथ बनाया पानी । 

दुनिया भाई दिवानी , है पैसे की धुलधानी ।।


माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय। 

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥ 


माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर । 

कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥ 


तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए। 

कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥ 


गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय। 

बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥  


साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय। 

मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। 

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥ 


कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और। 

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥ 


माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। 

आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥


रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय। 

हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥ 


दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥


बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥


उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।

तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥


सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।

धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥



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